क्या है सुप्त शक्तियों का जागृत काल, क्या हैं उसकी विशेषताएं और उत्तराखंड का पर्व इगास
"सुप्त शक्तियों का जागृत काल" एक ऐसा विचार है जो आमतौर पर मानव जीवन में अंतर्निहित, लेकिन अप्रयुक्त शक्तियों और संभावनाओं को जगाने की प्रक्रिया का संदर्भ देता है। यह धारणा प्राचीन भारतीय दर्शन, योग और अध्यात्म में महत्वपूर्ण स्थान रखती है, जहां माना जाता है कि हर व्यक्ति में असीमित शक्ति होती है, जो उचित साधना, ध्यान और आत्म-चेतना के माध्यम से सक्रिय हो सकती है।
यह जागरण काल तब आता है जब व्यक्ति अपने भीतर की गहराइयों में झांकता है और आत्म-चेतना प्राप्त करता है। इस स्थिति में, व्यक्ति को अपनी ऊर्जा, इच्छाशक्ति और मानसिक क्षमताओं का पूरा अहसास होता है, जिससे वह अपने जीवन के उद्देश्यों को बेहतर ढंग से पूरा करने में सक्षम होता है।
सुप्त शक्तियों के जागरण की अवधारणा मुख्य रूप से योग, अध्यात्म, और व्यक्तिगत विकास से जुड़ी हुई है। यह विचार इस बात पर आधारित है कि हर व्यक्ति के भीतर कुछ अनदेखी, अप्रयुक्त शक्तियाँ और क्षमताएँ मौजूद होती हैं, जिन्हें साधना और ध्यान के माध्यम से जगाया जा सकता है। आइए इस विषय को कुछ पहलुओं में गहराई से समझते हैं:
1. आध्यात्मिक दृष्टिकोण
कुंडलिनी शक्ति: भारतीय योग में यह माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में कुंडलिनी नामक शक्ति सुप्त अवस्था में स्थित होती है, जो शरीर के मूलाधार चक्र (रूट चक्र) में रहती है। योग और ध्यान की प्रक्रिया के माध्यम से इस ऊर्जा को जागृत किया जा सकता है। जब यह शक्ति जागृत होती है, तो यह शरीर के सात प्रमुख चक्रों को खोलते हुए ऊपर उठती है और व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और चेतना की उच्च अवस्था तक पहुंचाती है।
ध्यान और साधना: ध्यान, प्राणायाम, और अन्य योगिक अभ्यासों का उपयोग करके व्यक्ति अपने मानसिक और आत्मिक बल को विकसित कर सकता है। इन तकनीकों से मन की गहराई में छिपे अनजाने विचारों और भावनाओं को पहचाना जा सकता है, जिससे आध्यात्मिक जागरण होता है।
2. मानसिक और भावनात्मक जागरूकता
मन की असीमित शक्ति: आधुनिक मनोविज्ञान भी यह मानता है कि हमारे दिमाग में कई सुप्त क्षमताएँ होती हैं। ध्यान, सकारात्मक सोच, और आत्म-प्रेरणा के माध्यम से हम अपने विचारों और भावनाओं को नियंत्रित करके अपनी कार्यक्षमता बढ़ा सकते हैं।
भावनात्मक स्थिरता: जब व्यक्ति अपने भीतर की भावनाओं को पहचानना और उन्हें नियंत्रित करना सीखता है, तो यह जागरण का एक हिस्सा बन जाता है। यह भावनात्मक स्थिरता व्यक्ति को हर परिस्थिति में दृढ़ता और साहस के साथ खड़ा रहने की शक्ति प्रदान करती है।
3. व्यावहारिक अनुप्रयोग
लक्ष्य प्राप्ति: सुप्त शक्तियों को जागृत करके व्यक्ति अपनी रचनात्मकता, इच्छाशक्ति और संकल्प को मजबूत कर सकता है। इससे वह अपने जीवन के लक्ष्यों को अधिक प्रभावी ढंग से प्राप्त कर सकता है।
समाज में योगदान: जब व्यक्ति अपनी सुप्त शक्तियों को पहचानकर जागृत करता है, तो वह न केवल व्यक्तिगत जीवन में बल्कि समाज में भी सकारात्मक योगदान दे सकता है। उदाहरण के लिए, नेतृत्व क्षमता, सामाजिक सेवा, और नवाचार के माध्यम से।
4. प्राकृतिक तत्वों और ऊर्जा का महत्व
कुछ परंपराओं में यह भी कहा जाता है कि प्रकृति से जुड़कर और उसके साथ सामंजस्य बनाकर सुप्त शक्तियों को जागृत किया जा सकता है। जैसे कि पर्वतीय क्षेत्रों में ध्यान करना, नदियों के पास साधना करना आदि।
यानि सुप्त अवस्था में पड़ी हुई सकारात्मक शक्तियों को जागाने का समय एकाश(इगास) या देवोत्थान एकादशी पर्व मनाया जाता है। आलस्य जहां मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। आलस्य हमें उपलब्धियों से वंचित कर देता है। अज्ञान का अंधकार हमें काम, क्रोध, मोह, मद तथा लोभ आदि आसुरी वृत्तियों में लपेट कर आसुरी रास्ते की ओर ले जाता है परन्तु जब सकारात्मक शक्तियां जाग्रत हो जाती हैं तो जीवन में आसुरी वृत्ति स्वयं ही समाप्त होने लगती है। लोक जीवन में यही एकाश(इगास) का महत्व है।
इगास, जिसे बग्वाल के 11 दिन बाद मनाया जाता है, उत्तराखंड में विशेष महत्त्व रखता है। यह पर्व गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इगास को "बूढ़ी दीवाली" भी कहा जाता है।
इस अवसर पर पारंपरिक रीति-रिवाजों का पालन किया जाता है, जिसमें विशेष रूप से भैलों (दीपों के साथ पारंपरिक नृत्य) का आयोजन और स्थानीय व्यंजनों का आनंद लिया जाता है। इगास को सुप्त शक्तियों के जागरण के प्रतीक के रूप में भी देखा जाता है। इस समय लोग जागृत होकर अपने भीतर की शक्ति, ऊर्जा, और आध्यात्मिकता को पुनर्जीवित करने का प्रयास करते हैं। साथ ही, यह पर्व अपने पुरखों, संस्कृति, और प्रकृति के प्रति सम्मान व्यक्त करने का समय भी होता है।
इगास के इस सांस्कृतिक महत्त्व से समाज में एकता, भाईचारे और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने की भावना जागृत होती है।
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