कोटद्वार में राजनीतिक एजेंडा को चलाते कुछ श्रमिक जिन्हें डंडे और झंडा उठाने मैं अपना करियर नजर आ रहा है

 कुछ श्रमिक वर्ग के लोग राजनीतिक पार्टियों या गुटों के झंडे-डंडे उठाकर खुद को "स्थायी कार्यकर्ता" या "मूलसैनिक" के रूप में स्थापित करने का प्रयास करते हैं। इसे हम निम्नलिखित बिंदुओं में समझ सकते हैं:

1. राजनीति में करियर की उम्मीद

बहुत से युवा या श्रमिक वर्ग के लोग रोज़गार के सीमित अवसरों और संसाधनों की कमी के कारण राजनीतिक दलों के साथ जुड़ाव को एक अवसर के रूप में देखते हैं। वे आशा करते हैं कि झंडा उठाने, रैलियों में शामिल होने और नेताओं के लिए "काम करने" से उन्हें पहचान और पद मिल सकता है।

2. झंडा-डंडा कल्चर

यह "झंडा-डंडा कल्चर" उस राजनीतिक व्यवस्था का हिस्सा बन गया है जिसमें विचारधारा से ज़्यादा दिखावे और ताकत का प्रदर्शन अहम हो गया है। इससे विचारशून्य राजनीतिक कार्यकर्ता पैदा होते हैं जो केवल समर्थन या विरोध के नाम पर सड़क पर उतरते हैं।

3. स्थानीय नेता बनने की लालसा

कुछ लोग धीरे-धीरे वार्ड स्तर, पंचायत स्तर या पार्टी संगठन में छोटे-छोटे पदों तक पहुंचकर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करते हैं। इसमें उन्हें कुछ सामाजिक सम्मान तो मिलता है, लेकिन बहुत बार वे किसी बड़े नेता के ‘चमचे’ या 'फॉलोअर' बनकर ही रह जाते हैं।

4. वास्तविक सामाजिक परिवर्तन से दूरी

इनमें से कई लोगों की राजनीति से जुड़ाव केवल व्यक्तिगत लाभ या पहचान तक सीमित होता है — न कि समाज या श्रमिक वर्ग के वास्तविक मुद्दों को लेकर कोई आंदोलन खड़ा करना।


संभावित चिंतन और सुधार के बिंदु:

  • क्या ऐसे लोगों को वैकल्पिक आजीविका और नेतृत्व प्रशिक्षण दिया जा सकता है?
  • क्या उन्हें राजनीतिक विचारधारा और सामाजिक परिवर्तन के वास्तविक अर्थ से जोड़कर एक सार्थक दिशा दी जा सकती है?
  • क्या जनपद स्तर पर कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर और वैचारिक संवाद ज़रूरी हो गए हैं?


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