"क्या हमें दुनिया के दिखावे के अनुसार चलना चाहिए?" को अल्बर्ट कामू के पात्र मार्सो (Meursault) के दर्शन से जोड़ता है:
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हम सब कहीं न कहीं Meursault हैं
— दुनिया के दिखावे के विरुद्ध एक मौन प्रतिवाद
दुनिया को अक्सर वह चेहरा चाहिए जो भावुक हो, सुंदर हो, सामाजिक हो — और सबसे जरूरी, "स्वीकार्य" हो।
यह समाज एक ऐसे इंसान को समझ नहीं पाता, जो सच्चा हो लेकिन सजावटी न हो, जो संवेदनशील हो लेकिन प्रदर्शन से परे हो।
Albert Camus के उपन्यास "The Stranger" का पात्र Meursault, ऐसे ही यथार्थ का जीवंत प्रतीक है — एक ऐसा व्यक्ति जो जीता है, जैसा वह है।
वह न तो माँ की मृत्यु पर आँसू बहाता है, न ईश्वर की शरण में जाता है, और न ही समाज के तयशुदा संस्कारों की नक़ल करता है।
वह झूठ नहीं बोलता — शायद इसलिए क्योंकि उसे कोई झूठ बोलना सिखाने वाला समाज ही नहीं चाहिए।
उसका अपराध यह नहीं कि उसने किसी को मारा,
उसका अपराध यह था कि वह दिखावे में शामिल नहीं हुआ।
वह नायक नहीं है, फिर भी उसकी चुप्पी आज भी चीखती है —
एक ऐसे समाज के विरुद्ध, जो भावनाओं के मंचन को सच्चाई समझता है।
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हम भी क्या कुछ कम Meursault हैं?
जब हम किसी की मृत्यु पर रो नहीं पाते,
तो समाज हमें "पत्थरदिल" कहता है —
पर कोई यह नहीं पूछता कि
शायद हमारी आँखें आँसू से नहीं, सन्नाटे से भरी हों।
जब हम भीड़ में मौन रहते हैं,
तो लोग हमें "घमंडी" समझते हैं —
कोई यह नहीं देखता कि
शायद हमारे भीतर एक तूफ़ान बोल रहा हो।
हम सब उस अदालत में हैं,
जहाँ दोष हमारी चुप्पी का है,
और सज़ा — समाज की मान्यता से बहिष्कृत जीवन।
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कामू के दर्शन में, जीवन निरर्थक हो सकता है —
लेकिन उस निरर्थकता में भी एक सत्य है, एक गरिमा है।
Meursault उस सत्य को जीता है, बगैर मुखौटे के, बगैर पर्दों के।
और यही कारण है कि
Meursault कोई काल्पनिक पात्र नहीं —
वह हर उस आत्मा का प्रतिबिंब है जो सच्चाई से डरती नहीं, भले ही दुनिया उसे अकेला छोड़ दे।
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तो क्या हमें भी दुनिया के दिखावे के अनुसार चलना चाहिए?
शायद नहीं।
शायद हमें Meursault की तरह अपने मौन को ही प्रतिवाद बनने देना होगा।
क्योंकि कभी-कभी… सबसे ऊँची आवाज़ वो होती है, जो बोली नहीं जाती।
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