‘क्याब – रिफ्यूज’ को मिला बेस्ट स्क्रिप्ट और उत्तराखंड की दीवा शाह को बेस्ट स्क्रिप्ट रायटर का अवॉर्ड कान फिल्म फेस्टिवल फ्रांस में।


यह एक अत्यंत प्रेरणादायक उपलब्धि है। फिलहाल दिवा द्वारा बनाई जा रही फिल्म ‘क्याब – रिफ्यूज’ न केवल तिब्बती शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी की पहचान, संघर्ष और आत्म-संवेदनाओं को उजागर करती है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों के मानवाधिकार और अस्तित्व की बहस में भी एक महत्वपूर्ण योगदान देती है।

सीएनसी रेजीडेंसी कार्यक्रम के अंतर्गत ‘क्याब’ की पटकथा को पेरिस में चार से पांच महीने तक विशेषज्ञों के साथ परिष्कृत किया गया, जिससे इसकी विषयवस्तु और प्रस्तुति दोनों को अंतरराष्ट्रीय स्तर का मानक प्राप्त हुआ। इस स्क्रिप्ट का कान्स फिल्म फेस्टिवल में सम्मानित होना इस बात का प्रमाण है कि यह कहानी केवल एक समुदाय तक सीमित न रहकर वैश्विक मानवीय संवेदनाओं को छूती ।
 

‘क्याब – रिफ्यूज’: तिब्बती शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी की कहानी को वैश्विक मंच पर लाने वाली एक सशक्त फिल्म परियोजना

भारत में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की तीसरी पीढ़ी की अस्मिता, पहचान और संघर्ष की कहानी को वैश्विक दर्शकों तक पहुंचाने के लिए फिल्मकार फिलहाल दिवा अपनी नई फिल्म परियोजना ‘क्याब – रिफ्यूज’ पर कार्य कर रही हैं। यह फिल्म मात्र एक कथा नहीं, बल्कि एक समुदाय के भीतर उपजे अस्तित्व-संकट और सांस्कृतिक खोज की गहराई में उतरने का प्रयास है।

एक अंतरराष्ट्रीय मान्यता

‘क्याब’ की पटकथा को प्रतिष्ठित सीएनसी रेजीडेंसी कार्यक्रम (CNC Residency Programme) के तहत कान्स फिल्म फेस्टिवल में चुना गया, जहाँ इसे वर्ष की सर्वश्रेष्ठ स्क्रिप्ट के रूप में सम्मानित किया गया। यह उपलब्धि न केवल फिल्म की गुणवत्ता का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि शरणार्थियों की कहानियाँ अब केवल सीमाओं तक सीमित नहीं रहीं — वे विश्व सिनेमा के केंद्र में आ रही हैं।

सीएनसी रेजीडेंसी का अनुभव

सीएनसी रेजीडेंसी फ्रांस सरकार द्वारा आयोजित एक अनूठा कार्यक्रम है, जिसमें चयनित प्रतिभागियों को चार से पाँच महीने तक पेरिस में रहने और अपने फिल्म प्रोजेक्ट्स पर गहन कार्य करने का अवसर मिलता है। प्रतिभागी न केवल अपने विचारों को संवारते हैं, बल्कि विश्व सिनेमा के दिग्गजों, पटकथा लेखकों, संपादकों और निर्देशकों से संवाद स्थापित कर एक वैश्विक दृष्टिकोण विकसित करते हैं।

फिलहाल दिवा ने इस रेजीडेंसी के दौरान ‘क्याब’ की स्क्रिप्ट को संवारा, जिससे यह फिल्म एक अत्यंत परिपक्व और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रस्तुति बन गई।

'क्याब' की मूल संवेदना

'क्याब' का तात्पर्य होता है — आश्रय या शरण। यह फिल्म एक ऐसे युवा की कहानी है जो भारत में पैदा हुआ, लेकिन जिसकी जड़ें तिब्बत में हैं — एक ऐसी भूमि जिसे वह जानता तो है, पर कभी देखा नहीं। तीसरी पीढ़ी के तिब्बती शरणार्थी की यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, आत्मिक और पहचान से जुड़ी हुई है।

यह फिल्म उन जटिल सवालों को उठाती है जो अक्सर शरणार्थी परिवारों की तीसरी पीढ़ी में उठते हैं — “मैं कौन हूं?”, “कहां से आया हूं?”, “क्या मेरी कोई मातृभूमि है?”।

भारत में तिब्बती शरणार्थियों की स्थिति

भारत में तिब्बती शरणार्थियों की पहली पीढ़ी 1959 में चीन के कब्ज़े के बाद आई थी। लेकिन आज की पीढ़ी एक अलग द्वंद में है — न वे पूर्णतः भारतीय हैं, न पूरी तरह तिब्बती। ‘क्याब’ इन्हीं असमंजसों और संघर्षों को पर्दे पर लाकर न केवल तिब्बती समुदाय के भीतर की संवेदनाओं को सामने रखती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सांस्कृतिक पहचान किसी कागज़ी नागरिकता से कहीं अधिक जटिल और मानवीय विषय है।

निष्कर्ष

‘क्याब – रिफ्यूज’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आंदोलन है — जो शरणार्थी अनुभवों को, उनकी जटिलताओं को और उनकी मानवीय आकांक्षाओं को सिनेमा के माध्यम से सामने ला रहा है। यह परियोजना न केवल फिलहाल दिवा की प्रतिभा का प्रमाण है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि संवेदनशील और प्रामाणिक कहानियों की आज भी वैश्विक स्तर पर मांग है।

यह फिल्म जब पूरी होगी, तो निःसंदेह यह भारत के भीतर और बाहर, पहचान, विस्थापन और सांस्कृतिक जड़ों की गूंज को एक नई आवाज़ देगी।


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