"कोटद्वार में झंडा-डंडा संस्कृति और श्रमिकों की राजनीतिक आकांक्षाएं" विषय पर एक चिंतनशील आलेख:
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कोटद्वार में झंडा-डंडा संस्कृति: श्रमिकों की राजनीतिक आकांक्षाओं का नया मंच
भूमिका:
कोटद्वार, जो एक समय में श्रमिक आंदोलन और सामाजिक चेतना का केंद्र रहा है, आज एक अलग ही राजनीतिक परिदृश्य का साक्षी बन रहा है। यहां आज एक नया वर्ग उभर रहा है—वह वर्ग जो न तो पूर्णतः राजनीतिक है, न पूरी तरह श्रमिक; बल्कि एक ऐसा तबका है जो झंडा और डंडा उठाकर अपनी पहचान, आजीविका और भविष्य खोज रहा है। यह आलेख इस सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन पर रोशनी डालता है।
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1. राजनीति को आजीविका मानने का चलन
आज कोटद्वार के कई युवा और श्रमिक वर्ग के लोग राजनीति को विचार नहीं, बल्कि ‘करियर ऑप्शन’ के रूप में देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि किसी नेता के साथ दिखना, झंडा उठाना, रैली में भीड़ जुटाना और सोशल मीडिया पर फोटो डालना उन्हें पहचान और पद दिला सकता है। इस सोच ने राजनीति को सेवा से अधिक ‘सेल्फ-ब्रांडिंग’ का माध्यम बना दिया है।
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2. विचारधारा से दूर, व्यक्ति-पूजा के समीकरण
झंडा-डंडा संस्कृति में शामिल अधिकांश लोग किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित नहीं होते, बल्कि किसी एक प्रभावशाली नेता या दल से व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद रखते हैं। वे दलों के बीच आसानी से बदलते रहते हैं—जहां अवसर दिखे, वहीं निष्ठा का झंडा।
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3. श्रमिक वर्ग का ‘राजनीतिक मजदूरीकरण’
यह प्रवृत्ति न केवल राजनीति के लिए, बल्कि श्रमिक आंदोलन के लिए भी खतरनाक है। जो श्रमिक पहले मजदूरी के अधिकार, ठेकेदारी के खिलाफ संघर्ष या सामाजिक न्याय के लिए खड़े होते थे, वे अब ‘राजनीतिक मजदूर’ बनते जा रहे हैं—हर सभा, रैली या धरने में ‘ड्यूटी’ निभाते हुए। उनका संघर्ष अब जनहित से नहीं, दलहित से जुड़ गया है।
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4. अवसरवाद बनाम नेतृत्व निर्माण
जहां एक ओर झंडा-डंडा उठाने से कुछ को रोजगार, ठेका या टिकट की आशा होती है, वहीं यह संस्कृति नेतृत्व निर्माण की प्रक्रिया को कमजोर कर रही है। असली नेतृत्व वे लोग करते हैं जो विचार, दृष्टि और समर्पण से समाज को दिशा दें—not by muscle but by mind.
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5. सामाजिक संगठन और वैकल्पिक मंचों की आवश्यकता
इस प्रवृत्ति को संतुलित करने के लिए कोटद्वार में ज़रूरत है वैचारिक प्रशिक्षण, सामाजिक संगठन और जनसरोकार आधारित आंदोलनों की। युवाओं को रोजगार, नेतृत्व और बदलाव के अन्य रास्ते दिखाए जाने चाहिए, जहां वे किसी के झंडे तले नहीं, अपने विवेक से खड़े हो सकें।
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निष्कर्ष:
कोटद्वार का भविष्य तभी उज्ज्वल हो सकता है जब राजनीति विचार आधारित हो, और श्रमिक वर्ग अपनी अस्मिता, अधिकार और नेतृत्व को झंडा-डंडा संस्कृति की भीड़ में खोने न दे। ज़रूरत है एक नये सामाजिक संवाद की, जो इन युवाओं को एक सार्थक और स्वाभिमानी दिशा में मोड़े।
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