"उत्तराखंड में गोदी मीडिया"।



उत्तराखंड में गोदी मीडिया

(विश्लेषण)


1. 'गोदी मीडिया' का अर्थ

  • 'गोदी मीडिया' शब्द उस मीडिया के लिए इस्तेमाल होता है, जो सत्ता या बड़े आर्थिक हितों के पक्ष में झुक जाता है।
  • ये मीडिया संस्थान सरकार या शक्तिशाली वर्गों से सवाल करने के बजाय उनकी छवि चमकाने में लगे रहते हैं।
  • स्वतंत्र पत्रकारिता की मूल भावना — यानी सत्ता से सवाल करना — यहाँ खत्म होती दिखती है।

2. उत्तराखंड में गोदी मीडिया का स्वरूप

उत्तराखंड में भी पिछले कुछ वर्षों में गोदी मीडिया के लक्षण साफ देखे जा सकते हैं:

(क) सत्ता समर्थक रिपोर्टिंग

  • सरकार के कार्यक्रमों का अत्यधिक प्रचार, लेकिन नीतियों की विफलताओं पर चुप्पी।
  • विकास योजनाओं के प्रचार में उत्साह, लेकिन ज़मीन पर उनकी असल हालत पर रिपोर्टिंग न के बराबर।

(ख) पर्यावरण और जनसरोकारों की अनदेखी

  • चारधाम सड़क परियोजना, हेमकुंड ropeway, बड़े बांधों आदि से जुड़े पर्यावरणीय विनाश पर मुख्यधारा मीडिया का कमजोर कवरेज।
  • गाँवों के पलायन, बेरोजगारी जैसे गंभीर मुद्दे अक्सर गायब रहते हैं।

(ग) जन आंदोलनों की उपेक्षा या गलत चित्रण

  • राज्य में जब भी जनता सड़क पर उतरती है (जैसे महिला आंदोलनों, भूमि अधिकार आंदोलनों, पर्यावरण बचाओ आंदोलनों में), उन्हें 'बाधक', 'रुकावट' कहकर प्रस्तुत किया जाता है।
  • जनता के सवाल उठाने को 'विकास विरोधी' बताने की प्रवृत्ति।

(घ) सत्ता के करीबी कॉरपोरेट्स का वर्चस्व

  • बड़े बिल्डर, खनन माफिया, होटल लobbies के खिलाफ ख़बरें बहुत कम दिखाई जाती हैं।
  • विज्ञापन आय पर निर्भरता के कारण कई चैनल और अखबार सत्ता और कॉरपोरेट्स के खिलाफ जाने से बचते हैं।

3. क्षेत्रीय मीडिया में गोदी प्रवृत्ति

  • कई स्थानीय चैनल और पोर्टल (नाम अभी सार्वजनिक न करें तो बेहतर) — सरकारी विज्ञापनों और सरकारी मान्यता के लिए स्वतंत्रता की कीमत पर समझौते करते दिखते हैं।
  • उदाहरण:
    • सरकारी योजनाओं के उद्घाटन का लाइव प्रसारण, लेकिन अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी या स्कूलों में शिक्षकों के अभाव पर रिपोर्टिंग नहीं।
    • किसी भी मुख्यमंत्री या मंत्री की गतिविधियों का 'महिमामंडन'।

4. क्यों बन रहा है उत्तराखंड में गोदी मीडिया?

  • छोटा बाजार: उत्तराखंड में मीडिया का बाजार छोटा है — सरकारी विज्ञापनों पर बहुत ज़्यादा निर्भरता।
  • राजनीतिक दबाव: सत्ता पक्ष की आलोचना करने वाले पत्रकारों को कई बार 'मानहानि' या 'देशद्रोह' जैसे आरोपों से डराया जाता है।
  • कॉरपोरेट निवेश: बड़े मीडिया हाउसों के पीछे बड़े कारोबारी समूहों की पूंजी — निष्पक्षता पर असर।

5. अपवाद भी मौजूद हैं

सभी मीडिया संगठन गोदी नहीं बने हैं। कुछ जमीनी पत्रकार और छोटे मीडिया पोर्टल आज भी —

  • जमीनी मुद्दों को उठा रहे हैं।
  • आदिवासी अधिकारों, पलायन, बेरोजगारी, पर्यावरणीय खतरे जैसे सवालों को सामने ला रहे हैं।
  • लेकिन उन्हें आर्थिक, कानूनी और सामाजिक चुनौतियाँ झेलनी पड़ती हैं।

उदाहरण:

  • कुछ स्वतंत्र पोर्टल या यूट्यूब चैनल्स जो सरकार से सवाल कर रहे हैं।
  • स्वतंत्र पत्रकार जो गांव-गांव घूमकर रियल रिपोर्टिंग कर रहे हैं।

6. आगे की राह

  • जनता को भी मीडिया को सवालों के घेरे में लेना होगा।
  • स्वतंत्र पत्रकारिता को समर्थन देना (views, subscriptions, crowdfunding)।
  • युवा पत्रकारों को प्रशिक्षित करना — जो सत्ता से नहीं, सच्चाई से जुड़ें।
  • मीडिया साक्षरता बढ़ानी होगी, ताकि लोग प्रोपेगैंडा और असली खबर में फर्क कर सकें।

निष्कर्ष

उत्तराखंड में भी गोदी मीडिया एक बड़ा और गंभीर खतरा बन रहा है। लेकिन समाज अगर सचेत हो जाए, और स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा दे, तो यह प्रवृत्ति बदली जा सकती है।
सवाल पूछना, जवाब माँगना और सच्ची पत्रकारिता को समर्थन देना आज के समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है।


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