कोई श्रेष्ठ नहीं, कोई हीन नहीं – लेकिन कोई समान भी नहीं है: हर व्यक्ति अद्वितीय है





“कोई भी श्रेष्ठ नहीं है, कोई हीन नहीं है, लेकिन कोई भी समान भी नहीं है। लोग बस अद्वितीय होते हैं, अपूर्व और अतुलनीय। तुम तुम हो, मैं मैं हूँ।”

यह विचार जीवन के गहरे सत्य को उजागर करता है। समाज ने हमेशा हमें तुलनाओं में उलझाया है – कौन बेहतर है, कौन पीछे है, कौन आगे बढ़ रहा है, और कौन पिछड़ रहा है। लेकिन अगर हम थोड़ी देर के लिए इन सभी सामाजिक मापदंडों को एक तरफ रख दें, तो हम देख पाएंगे कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में एक अनोखी दुनिया है।

1. तुलना ही दुःख की जड़ है

हम अपने बच्चों की तुलना अन्य बच्चों से करते हैं, अपनी सफलता को पड़ोसी से मापते हैं, अपनी सुंदरता को फिल्मों के पात्रों से और अपनी जीवनशैली को सोशल मीडिया से। लेकिन यह सब हमें कभी संतोष नहीं देता, क्योंकि हम अपनी मौलिकता को भूलकर किसी और की छाया बनने की कोशिश करते हैं।

2. श्रेष्ठता और हीनता भ्रम है

जब हम कहते हैं कि कोई “श्रेष्ठ” है, तो हम मानते हैं कि किसी और की “कमियां” हैं। लेकिन क्या कला को विज्ञान से तुलना की जा सकती है? क्या कविता को व्यवसाय से मापा जा सकता है? क्या किसी किसान की मेहनत को एक इंजीनियर की नौकरी से तुलनात्मक दृष्टि से देखा जा सकता है? हर व्यक्ति अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ है – क्योंकि वह वही कर रहा है जो उसकी आत्मा से जुड़ा है।

3. समानता भी एक कृत्रिम अवधारणा है

लोकतंत्र और समाज में सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए – इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन ‘समानता’ का अर्थ यह नहीं कि हर कोई एक जैसा है। दो लोगों के फिंगरप्रिंट भी नहीं मिलते – तो विचार, भावनाएं, क्षमताएं और व्यक्तित्व कैसे मिल सकते हैं? समानता का ढांचा भी तब असत्य हो जाता है जब हम सभी को एक ही साँचे में ढालने की कोशिश करते हैं।

4. अद्वितीयता: असली पहचान

प्रकृति में कोई दो फूल एक जैसे नहीं होते, कोई दो पेड़ एक जैसे नहीं बढ़ते। वैसे ही हर इंसान की अपनी सोच, अनुभव, उद्देश्य और आत्मा होती है। जब हम खुद को किसी से बेहतर या कमतर मानते हैं, तो हम अपने अंदर की इस अनोखापन को नकार देते हैं।

5. “तुम तुम हो, मैं मैं हूँ” – इसका अर्थ क्या है?

इसका अर्थ यह नहीं कि हम एक-दूसरे से अलग होकर अहंकार में जीएं, बल्कि इसका मतलब है कि हम हर किसी की विशेषता को स्वीकार करें – खुद की भी और दूसरों की भी। न तुलना, न प्रतिस्पर्धा – बस समझदारी, स्वीकृति और आत्म-प्रेम।


निष्कर्ष:

इस जीवन में न कोई बड़ा है, न छोटा – और न ही कोई समान है। हम सभी उस महान रचनाकार की अनोखी कृतियाँ हैं। जब हम दूसरों से तुलना करना छोड़कर खुद को पहचानना शुरू करते हैं, तभी सच्ची शांति, सच्चा विकास और सच्चा प्रेम संभव होता है।

तुम तुम हो, मैं मैं हूँ – और इसी में है जीवन का सौंदर्य।

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