"चल पड़ा हूं मंज़िल की ओर"
"चल पड़ा हूं मंज़िल की ओर"
मंज़िल की चाह में निकला हूं मैं,
सपनों की गठरी कंधे पे लिए।
हर मोड़ पे एक नया सबक मिला,
हर ठोकर ने हौसला दिए।
भटकता रहा, गिरा भी कई बार,
पर रुकना न था, ये ठान लिया।
हर अंधेरी रात के बाद,
सवेरा खुद पास आ गया।
जो बैठे रहे घर की चारदीवारी में,
डर के साए में खोते रहे।
वो कहां जानेंगे रास्तों की जुंबिश,
जो कदम कभी उठाते नहीं।
मुझे रास्ते भी आज सलाम करते हैं,
जिन्हें कभी अनजाना समझा था।
हर ठोकर, हर कांटा अब कहता है —
“तू सही राह पे चला था।”
मंज़िल मिलेगी, ये यक़ीन है पक्का,
भले देर हो, पर सफ़र सच्चा।
गुमराह वो नहीं जो भटकते हैं राहों में,
गुमराह तो वो हैं, जो चले ही नहीं।
@दिनेश दिनकर
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