## **उत्तराखंड में क्षेत्रीय पंचायत चुनाव: स्थानीय लोकतंत्र की असली परीक्षा**
**लेखक: —— (दिनेश पाल सिंह )**
Udaen News Network
उत्तराखंड के गांवों और पहाड़ों में लोकतंत्र की असली जड़ें वहीं से शुरू होती हैं जहाँ से जनता खुद अपने हाथों से सरकार बनाती है — **पंचायत चुनाव**। खासकर **क्षेत्रीय पंचायत (ब्लॉक स्तर)** के चुनाव, न केवल स्थानीय विकास की दिशा तय करते हैं, बल्कि यह तय करते हैं कि गांव की सड़क से लेकर स्कूल, स्वास्थ्य, रोजगार और योजनाओं का भविष्य कैसा होगा।
परंतु क्या जनता को अपने अधिकारों की पूरी जानकारी है? क्या इन चुनावों में असल में जनता की आवाज़ ही जीतती है, या फिर बाहरी प्रभाव?
पंचायती राज क्या है?
उत्तराखंड में पंचायती राज प्रणाली **तीन स्तरों पर कार्य करती है**:
1. **ग्राम पंचायत** – गांव स्तर पर
2. **क्षेत्र पंचायत (ब्लॉक स्तर)** – कई गांवों का समूह
3. **जिला पंचायत** – जिले भर की सर्वोच्च पंचायत
यह प्रणाली संविधान के 73वें संशोधन के बाद बनाई गई थी ताकि **लोकतंत्र को जड़ों तक ले जाया जा सके**।
क्षेत्रीय पंचायत चुनाव: सत्ता की नई लड़ाई
क्षेत्र पंचायत चुनाव आमतौर पर *गैर-राजनीतिक* माने जाते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि इन चुनावों में **राजनीतिक दलों का परोक्ष हस्तक्षेप**, **जातिगत समीकरण**, **धनबल और बाहुबल** अब आम हो गया है।
चुनाव में हो रही विकृतियाँ:
* महिला सीटों पर *प्रॉक्सी राज*: पति या ससुर ही सत्ता चला रहे हैं।
* युवाओं की भागीदारी कम: पुरानी सोच हावी।
* ग्राम सभाओं की अनदेखी: जनता को सिर्फ वोट देने तक सीमित रखा जा रहा है।
### 🔷 जनता के अधिकार: क्या आप जानते हैं?
पंचायती राज सिर्फ चुने हुए प्रतिनिधियों की नहीं, बल्कि **गांव के हर नागरिक की जिम्मेदारी और अधिकार** है।
आपके मुख्य अधिकार:
1. **चुनाव में वोट देने और उम्मीदवार बनने का अधिकार**
2. **ग्राम सभा में सवाल पूछने और प्रस्ताव रखने का अधिकार**
3. **सरकारी योजनाओं की निगरानी करने का अधिकार**
4. **RTI के ज़रिए पंचायत से जानकारी लेने का अधिकार**
5. **भ्रष्टाचार या लापरवाही की शिकायत करने का अधिकार**
क्या है असली लोकतंत्र?
जब एक साधारण किसान, मजदूर, महिला या छात्र **ग्राम सभा में सवाल पूछता है**, जब पंचायत का बजट पारदर्शी होता है, जब विकास की योजना गाँव में रहकर बनती है — तभी लोकतंत्र सशक्त होता है।
उत्तराखंड के विशेष संदर्भ में
उत्तराखंड में भौगोलिक विषमता, पलायन, सीमांत गांवों की उपेक्षा और रोजगार संकट जैसे मुद्दे **स्थानीय स्तर पर ही समाधान की मांग करते हैं**। और यह समाधान तभी संभव है जब क्षेत्रीय पंचायतें सचमुच जनता की हों — न कि किसी पार्टी, जाति या गुट की।
समाधान और रास्ता:
1. **पंचायत प्रतिनिधियों के लिए अनिवार्य प्रशिक्षण**
2. **ग्राम सभा को अधिकार देने के लिए कानून लागू करना**
3. **RTI और सामाजिक अंकेक्षण को अनिवार्य बनाना**
4. **डिजिटल पारदर्शिता**: पंचायत कार्यों को ऑनलाइन प्रकाशित करना
5. **महिलाओं और युवाओं को नेतृत्व में प्रोत्साहन**
निष्कर्ष
क्षेत्रीय पंचायत चुनाव केवल एक प्रक्रिया नहीं, यह **एक अवसर है — गांवों की तकदीर बदलने का**। उत्तराखंड जैसे राज्य में, जहां विकास की जरूरतें और चुनौतियां अलग हैं, वहां यह और भी ज़रूरी है कि पंचायतें **जनता के अधिकारों की पहरेदार** बनें, न कि केवल कुर्सियों की लड़ाई।
**सवाल ये नहीं कि कौन जीतता है, असली सवाल ये है कि क्या जनता जीती है?**
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