**“छोटा राज्य, बड़ी विफलताएँ: मुंडला से मानवाधिकार तक की दूरी”**
उत्तराखंड की सच्चाई का एक दर्दनाक और सशक्त चित्रण है। यह सिर्फ एक गाँव या क्षेत्र की नहीं, बल्कि उस पूरे विचार की विफलता को उजागर करता है, जिसके तहत छोटे राज्यों को अधिक सशक्त, सुशासनयुक्त और जनसुविधाओं से समृद्ध बनाने की कल्पना की गई थी।
## **✍️ लेख**
### **“छोटा राज्य, बड़ी विफलताएँ: मुंडला से मानवाधिकार तक की दूरी”**
उत्तराखंड के गठन से एक बड़ी उम्मीद जुड़ी थी – एक छोटा राज्य, जहाँ सरकार जनता के करीब होगी, संसाधनों पर जनता का अधिकार होगा, और गांव-गांव तक मूलभूत सुविधाएँ पहुंचेगी। लेकिन दो दशक बीत जाने के बावजूद पहाड़ का जीवन आज भी एक संघर्ष है – और यह संघर्ष अब केवल आर्थिक नहीं, बल्कि **मानवाधिकारों का सीधा उल्लंघन** बन चुका है।
कोटद्वार तहसील से महज़ 6 किलोमीटर दूर स्थित गाँव – मुंडला, कटहल, काथल, सलिंगा, मटियाल आदि – आज भी सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। इन गांवों के बच्चे माध्यमिक शिक्षा के बाद आगे पढ़ नहीं पाते। बीमार व्यक्ति अस्पताल तक नहीं पहुंच पाता। युवाओं को रोजगार की कोई उम्मीद नहीं दिखती, और विवाह जैसे सामाजिक रिश्ते भी सड़क न होने की वजह से टूट जाते हैं। क्या यही आज़ादी है?
### **सड़क नहीं, तो अधिकार नहीं**
सरकार कहती है कि वन्यजीव संरक्षण के तहत NOC नहीं मिल रही, क्योंकि वहाँ बाघ के पंजों के निशान मिले हैं। पर क्या यह तर्क एक गाँव की **आबादी के पूरे जीवन** को अंधेरे में डालने के लिए काफी है? क्या वन्य संरक्षण का मतलब इंसान के अधिकारों की बलि है?
2014 में गाँववासियों ने धरना दिया, प्रदर्शन किया, जागरूकता अभियान चलाया। ₹1.39 करोड़ की सड़क योजना स्वीकृत हुई। पर वन्य जीव NOC की आड़ में आज तक काम शुरू नहीं हो पाया।
### **युवाओं का पलायन: मजबूरी या व्यवस्था की हार?**
जब गाँव का युवा उच्च शिक्षा नहीं ले सकता, खेत की उपज सड़क तक नहीं पहुँच पाती, और कोई परिवार लड़की की शादी तक नहीं करना चाहता – तब यह सिर्फ पिछड़ापन नहीं, बल्कि एक सामाजिक आपातकाल है। यही वजह है कि युवा गाँव छोड़ रहे हैं। और जो प्रवासी लौटना भी चाहते हैं, वे भी सड़क न होने के कारण लौट नहीं सकते।
### **सवाल सिर्फ एक सड़क का नहीं है...**
...सवाल है राज्य और संविधान द्वारा मिले **“मानवाधिकारों”** का। शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन और आजीविका – ये सब मौलिक अधिकारों की श्रेणी में आते हैं। अगर एक गाँव 76 वर्षों के बाद भी इससे वंचित है, तो यह राज्य की नैतिक और संवैधानिक विफलता है।
छोटा राज्य बनाना समाधान नहीं था, जब तक शासन की नीयत और नीति, दोनों में संवेदनशीलता न हो। मुंडला जैसे गाँवों की स्थिति हमें मजबूर करती है पूछने को – **क्या आज़ादी सिर्फ एक प्रतीकात्मक पर्व बनकर रह गई है?**
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## 🎥 **डॉक्यूमेंट्री स्क्रिप्ट (हिंदी)**
### **शीर्षक: “छोटा राज्य, टूटी उम्मीदें – मुंडला की आवाज़”**
**\[दृश्य 1: पहाड़ों में बसा सुंदर लेकिन सुनसान गाँव]**
**Narrator (वॉयसओवर):**
उत्तराखंड – देवभूमि, हरियाली, नदियाँ और शांति का प्रतीक। लेकिन इस सुंदरता के पीछे छुपी है एक करुण सच्चाई। ये कहानी है मुंडला और उसके आस-पास के गांवों की – जो आज़ादी के 76 साल बाद भी सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं।
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**\[दृश्य 2: गाँव की महिलाएं पीठ पर लकड़ी लादे हुए, बच्चे पहाड़ी पगडंडियों पर स्कूल जाते हुए]**
**Narrator:**
यहाँ बच्चों के लिए स्कूल तक पहुँचना एक जोखिमभरी चढ़ाई है। बीमार व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने के लिए चार लोग मिलकर उसे खाट पर उठाकर ले जाते हैं। और जब कोई परिवार लड़की की शादी के लिए पूछता है – तो जवाब मिलता है, “वहाँ सड़क नहीं है।”
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**\[दृश्य 3: एक ग्रामीण बुजुर्ग बोलते हुए]**
**ग्रामीण:**
"हमने धरना दिया, कलेक्टर साहब को लिखा, मुख्यमंत्री को चिट्ठियाँ भेजीं। एक बार योजना पास भी हो गई। पर वाइल्ड लाइफ वालों ने कह दिया कि वहाँ बाघ के पाँव के निशान हैं, इसलिए सड़क नहीं बनेगी।"
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**\[दृश्य 4: पुराना धरना प्रदर्शन और नुक्कड़ नाटक के दृश्य]**
**Narrator:**
2014 में गाँववासियों ने हिम्मत दिखाई – धरना दिया, रैलियाँ निकालीं। लेकिन शासन और प्रशासन के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
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**\[दृश्य 5: खेतों में सड़ती उपज, ट्रॉली तक पहुँचाने के लिए मजदूरी करता किसान]**
**Narrator:**
इन खेतों में मेहनत होती है, अनाज उपजता है – लेकिन मंडी तक पहुँचने से पहले ही सड़ जाता है। क्योंकि 6 किलोमीटर तक अनाज पहुँचाने में हर ट्रॉली को ₹400 देने पड़ते हैं।
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**\[दृश्य 6: युवा वर्ग इंटरव्यू – एक प्रवासी युवा]**
**प्रवासी युवा:**
"मैं वापस आना चाहता हूँ, खेती करना चाहता हूँ, लेकिन जब सड़क ही नहीं है तो ट्रैक्टर, ट्रॉली, मशीन कैसे लाऊँ?"
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**\[दृश्य 7: मानव अधिकार विशेषज्ञ या RTI कार्यकर्ता]**
**एक्टिविस्ट:**
"यह सिर्फ विकास की विफलता नहीं है। यह संविधान प्रदत्त मानवाधिकारों का उल्लंघन है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सड़क मौलिक अधिकारों का हिस्सा हैं।"
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**\[दृश्य 8: क्लोजिंग – झरता हुआ पानी, खाली गाँव के टूटते घर]**
**Narrator (भावुक लहजे में):**
मुंडला की ये कहानी अकेली नहीं है। उत्तराखंड के कई गाँव इस अंधकार में फंसे हुए हैं। जब तक सड़क नहीं पहुँचती, तब तक लोकतंत्र, मानवाधिकार और विकास – सब खोखले वादे ही रहेंगे।
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**\[अंतिम स्लाइड/टेक्स्ट स्क्रीन:]**
**“एक सड़क सिर्फ कंक्रीट नहीं, यह जीवन की आशा है।”**
**#SaveMundla #PahadKeAdhikar #HumanRightsInUttarakhand**
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