✍️ उत्तराखंड: मूल निवासी का संकट और राजधानी का इंतजार
✍️ उत्तराखंड: मूल निवासी का संकट और राजधानी का इंतजार
🏞️ 1. 1950 आधारित मूल निवास — किसका हक़, किसकी पहचान?
उत्तराखंड के युवाओं और आम जनता के बीच एक सवाल लगातार गूंज रहा है —
"क्या हम अपने ही राज्य में पराए हैं?"
उत्तराखंड सरकार द्वारा जारी "मूल निवासी प्रमाणपत्र" आज भी 1950 की तिथि से जुड़ा हुआ है। इसका मतलब है —
> जिनके पूर्वज 1950 से पहले उत्तराखंड (तत्कालीन यूपी) में बसे थे, वही स्थायी निवासी माने जाएंगे।
🔍 इसका परिणाम?
राज्य में 2000 के बाद जन्मे बच्चे, जिनके माता-पिता बाहर से आकर बसे, वे स्थायी नागरिक नहीं माने जाते, भले ही वे यहीं पले-बढ़े हों।
हजारों युवाओं को शासकीय नौकरियों, स्थानीय आरक्षण, छात्रवृत्तियों व भूमि अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।
आदिवासी, दलित, और सीमांत क्षेत्रों के लोग विशेष रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
📢 जनमांग:
"1950" की शर्त हटाई जाए और व्यावहारिक व आधुनिक स्थानीयता की परिभाषा तय की जाए।
कम से कम 20 वर्ष की स्थायी निवास अवधि, शिक्षा, भूमि स्वामित्व या रोजगार आधारित मानकों को जोड़ा जाए।
मूल निवासी अधिनियम बने जो सभी पीढ़ियों को सम्मान और अधिकार दे।
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🏔️ 2. गैरसैंण: आंदोलन की राजधानी, लेकिन कागज़ों में सीमित
उत्तराखंड की अस्मिता की पहचान — गैरसैंण — आज भी अपने अधिकारों की प्रतीक्षा में है।
📜 इतिहास:
1994 के उत्तराखंड आंदोलन के दौरान गैरसैंण को राजधानी बनाने की मांग हुई थी क्योंकि यह राज्य के भौगोलिक और सांस्कृतिक केंद्र में है।
लेकिन 2000 में राज्य बनने के बाद से देहरादून को अस्थायी राजधानी बनाया गया और गैरसैंण को सिर्फ ग्रीष्मकालीन राजधानी की मान्यता मिली।
📉 स्थिति आज:
गैरसैंण में सिर्फ नाममात्र की विधानसभा, कोई सचिवालय नहीं।
बुनियादी ढांचा अधूरा, राजनीतिक इच्छाशक्ति कमजोर।
🚩 जनता की भावना:
> "अगर गैरसैंण राजधानी नहीं बनी,
तो पहाड़ सिर्फ खाली और उजड़ते रहेंगे।"
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✊ जन संघर्ष के नारे और घोषणाएं:
1. "1950 नहीं, पहचान हमारा हक़ है!"
2. "स्थायी राजधानी गैरसैंण हो — देहरादून नहीं समाधान हो!"
3. "हम यहीं जन्मे, यहीं पले — हक़ से मूल निवासी कहलाएंगे!"
4. "गैरसैंण को राजधानी बनाओ - पहाड़ को पलायन से बचाओ
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