सरकारी नजर में "कैपिटल लेटर में नाम" क्या है?
यह एक बहुत ही दिलचस्प और गहराई से जुड़ा सवाल है, जो अक्सर sovereign citizen movements या freeman on the land जैसे आंदोलनों में उठाया जाता है। लेकिन भारतीय संदर्भ और कानून में इसे समझना जरूरी है कि:
🔹 सरकारी नजर में "कैपिटल लेटर में नाम" क्या है?
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प्रशासनिक सुविधा के लिए फॉर्मेट:
- सरकारी दस्तावेजों में नाम को कैपिटल लेटर्स में लिखना केवल एक प्रारूप (formatting convention) है, जिससे नामों को साफ़ और स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सके।
- यह कानूनी रूप से न तो कोई डेड आइडेंटिटी है और न ही कोई अलग अस्तित्व को दर्शाता है।
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"डेड आइडेंटिटी" की अवधारणा:
- यह धारणा कि कैपिटल लेटर में नाम किसी "कॉर्पोरेट या मृत पहचान (Dead Entity/Strawman Identity)" को दर्शाता है, भारतीय संविधान या विधिक ढांचे में मान्य नहीं है।
- यह विचार अमेरिकी और कुछ पश्चिमी देशों में सीमांत वैकल्पिक कानूनी सिद्धांतों (Pseudo-Legal Theories) से जुड़ा है, जिनकी भारतीय कानून में कोई वैधता नहीं है।
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भारतीय कानूनी व्यवस्था में व्यक्ति की पहचान:
- भारत में किसी व्यक्ति की पहचान का निर्धारण उसके जन्म प्रमाण पत्र, आधार, वोटर आईडी, पासपोर्ट, आदि कानूनी दस्तावेजों के माध्यम से होता है, न कि केवल नाम के फ़ॉर्मेट से।
- सरकार व्यक्ति को एक जीवित इंसान (Natural Person) मानती है, और किसी "कॉपोरेट व्यक्ति" की तरह केवल नाम के आधार पर उसे डेड घोषित नहीं करती।
🔸 लेकिन ये भ्रम कहां से आता है?
- कुछ लोग मानते हैं कि जब नाम पूरी तरह कैपिटल लेटर में होता है (जैसे – "DINESH GUSAIN") तो वह कानूनी रूप से एक कॉर्पोरेशन या कृत्रिम पहचान (Strawman Entity) बन जाता है।
- इन विचारों की जड़ें अक्सर कॉमन लॉ और बैंकिंग/बॉन्ड सिद्धांतों में होती हैं, जो भारत के कानून से मेल नहीं खाते।
🔹 निष्कर्ष:
नहीं, भारत में कैपिटल लेटर में नाम लिखना सरकार की नजर में "Dead Identity" नहीं माना जाता।
यह केवल प्रारूप और स्पष्टता के लिए किया जाता है, और व्यक्ति की कानूनी स्थिति या अधिकार इससे प्रभावित नहीं होते।
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