"असंतोष की आवाज को लोकतंत्र विरोधी बताना संवैधानिक मूल्यों पर चोट है" —यह एक गहरी लोकतांत्रिक चेतना और नागरिक अधिकारों की समझ को दर्शाता है।



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असंतोष की आवाज को लोकतंत्र विरोधी बताना: क्या यह संवैधानिक मूल्यों पर चोट नहीं है?

भारत का संविधान हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विचारों की भिन्नता, और लोकतांत्रिक संवाद का अधिकार देता है। जब कोई नागरिक या समूह किसी नीति, व्यवस्था या निर्णय का विरोध करता है, तो वह लोकतंत्र के उस स्तंभ को मज़बूत करता है, जिसे "जवाबदेही" (Accountability) कहा जाता है।

लेकिन जब सत्ता या समाज का एक हिस्सा असंतोष की आवाज़ को देशद्रोह, राष्ट्रविरोध या लोकतंत्र विरोधी कहकर खारिज करने लगता है, तो यह केवल असहमति को दबाना नहीं होता — यह सीधे-सीधे संवैधानिक मूल्यों पर हमला होता है।

लोकतंत्र की असली ताकत

लोकतंत्र की सुंदरता इसी में है कि इसमें हर आवाज़ को जगह मिलती है — चाहे वह बहुमत के पक्ष में हो या अल्पमत के। अगर हम असंतोष की आवाज़ को खामोश कर देंगे, तो वह लोकतंत्र नहीं, तानाशाही की ओर बढ़ता कदम होगा।

इतिहास से सीख

भारत का स्वतंत्रता संग्राम ही असंतोष की एक बुलंद आवाज़ था — ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ एक विचारधारा। अगर असंतोष गलत होता, तो गांधी, भगत सिंह, अंबेडकर, लोहिया जैसे लोग कभी इतिहास नहीं बन पाते।

आज का परिप्रेक्ष्य

आज जब कोई नागरिक सरकार की नीतियों पर सवाल उठाता है — चाहे वह पर्यावरणीय संकट हो, आर्थिक नीतियाँ हों, या सामाजिक असमानताएँ — तो वह देश के भले की बात करता है। लेकिन दुर्भाग्यवश, ऐसे सवाल उठाने वालों को "टुकड़े-टुकड़े गैंग", "राष्ट्र विरोधी", या "अर्बन नक्सल" जैसे लेबल दे दिए जाते हैं।

संवैधानिक दायित्व

संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) हमें स्वतंत्र रूप से बोलने और अपने विचार प्रकट करने का अधिकार देता है। यह अधिकार कोई सरकार या संस्था नहीं, बल्कि भारत का संविधान खुद देता है।

निष्कर्ष

अगर हम हर असंतोष को लोकतंत्र विरोधी कहेंगे, तो धीरे-धीरे हम एक डर और चुप्पी के समाज में तब्दील हो जाएंगे, जहाँ सवाल पूछना अपराध और सहमति ही धर्म हो जाएगा।

इसलिए यह ज़रूरी है कि हम असंतोष की आवाज़ को लोकतंत्र की आत्मा समझें — न कि उसे कुचलने का औजार।


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