**"आप इंसान को समाज में रख सकते हैं, लेकिन समाज को इंसान में नहीं रख सकते"** लेख दिनेश पाल सिंह गुसाईं
**"आप इंसान को समाज में रख सकते हैं, लेकिन समाज को इंसान में नहीं रख सकते"**
हम अक्सर कहते हैं कि इंसान एक सामाजिक प्राणी है। उसका अस्तित्व समाज के साथ जुड़ा है—परिवार, संस्कृति, परंपराएं, कानून और नैतिक मूल्य, सब मिलकर उसे दिशा देते हैं। लेकिन इस सत्य के साथ एक गहरी बात छुपी है:
**आप इंसान को समाज में रख सकते हैं, लेकिन समाज को इंसान में नहीं रख सकते।**
इसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को हम भौतिक रूप से समाज का हिस्सा बना सकते हैं, उसके चारों ओर सामाजिक ढांचा, संस्थाएं और नियम मौजूद कर सकते हैं। परंतु यह जरूरी नहीं कि वह व्यक्ति अपने भीतर उस समाज के मूल्यों, संवेदनाओं और जिम्मेदारियों को धारण कर ले।
### 1. **समाज बाहरी है, इंसान का चरित्र आंतरिक**
समाज एक बाहरी व्यवस्था है—नियम, कानून, संस्थाएं और परंपराएं। लेकिन किसी व्यक्ति के भीतर जो विचार, संवेदनाएं और नैतिकता होती है, वह उसकी आंतरिक दुनिया है। बाहर का ढांचा किसी पर थोपा जा सकता है, पर अंदर की सोच तभी बदलती है जब व्यक्ति स्वयं उसे अपनाना चाहे।
### 2. **संस्कार बनाम दिखावा**
बहुत से लोग समाज में "अच्छे नागरिक" की छवि रखते हैं, लेकिन उनके निजी आचरण में समाज के हितों की कोई जगह नहीं होती। यह दिखाता है कि भले ही वे समाज में रहते हैं, लेकिन समाज उनके भीतर नहीं है। समाज के संस्कार केवल औपचारिकता बनकर रह जाते हैं, जीवन का वास्तविक मूल्य नहीं बन पाते।
### 3. **व्यक्ति का स्वभाव परिवर्तन का मूल**
अगर समाज को व्यक्ति में रखना है तो केवल कानून, सज़ा या पुरस्कार से बात नहीं बनेगी। इसके लिए शिक्षा, संवेदनशीलता और आत्मचिंतन जरूरी है। व्यक्ति तभी समाज के प्रति जिम्मेदार होगा जब वह अपनी पहचान को केवल "मैं" तक सीमित न रखकर "हम" तक बढ़ाए।
### 4. **आधुनिक संदर्भ**
आज के समय में तकनीक और सोशल मीडिया ने हमें भौतिक रूप से तो जोड़ा है, लेकिन मानसिक रूप से हम और अलग-थलग होते जा रहे हैं। हम समाज में हैं, लेकिन समाज हमारे भीतर घटता नहीं। दूसरों की परेशानी को हम "समाचार" की तरह देखते हैं, न कि अपने हिस्से की जिम्मेदारी की तरह।
### 5. **निष्कर्ष**
सच्चा सामाजिक जीवन केवल बाहरी नियमों का पालन नहीं, बल्कि अंदर से समाज के प्रति संवेदनशील होना है। समाज को व्यक्ति में डालना, यानी उसमें करुणा, समानता, न्याय और सहयोग जैसे मूल्यों का बीज बोना, एक लंबी और सतत प्रक्रिया है। यह कार्य शिक्षा, परिवार, और संस्कृति के माध्यम से ही संभव है।
**अंततः** – समाज में रहना आसान है, लेकिन समाज को अपने भीतर जीना ही असली इंसानियत है।
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