आपदा और विपदा के बीच अवसर की राजनीति: उत्तराखंड की सामाजिक बुनियाद पर खतरा
देहरादून/धराली।
उत्तराखंड में प्रकृति की मार और राजनीति की चाल—दोनों ने इस पहाड़ी राज्य की सांसें थाम दी हैं। एक ओर धराली समेत कई इलाकों में प्राकृतिक आपदाएं लोगों की ज़िंदगी, घर, खेत और रोज़गार निगल रही हैं। दूसरी ओर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में धनबल और बाहुबल का बेहिसाब इस्तेमाल लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे को हिला रहा है।
प्रश्न यह है कि इन आपदा और विपदा में असल नुकसान किसका हो रहा है और अवसर किसे मिल रहा है?
नुकसान: गांव के आम लोग, जिनकी रोज़मर्रा की लड़ाई पहले ही महंगी ज़िंदगी, कम रोजगार और आपदा से जूझने की है, अब चुनावी तनाव और हिंसा का बोझ भी झेल रहे हैं।
अवसर: वही ताकतवर और रसूखदार, जो संकट की घड़ी में राहत देने के बजाय चुनावी समीकरण साधने में जुटे हैं।
उत्तराखंड की सामाजिक बुनियाद—आपसी भरोसा, सामुदायिक सहयोग और निष्पक्ष नेतृत्व—इन दोनों मारों से हिल रही है। प्राकृतिक आपदा का असर तात्कालिक है, लेकिन राजनीतिक विपदा का असर पीढ़ियों तक रह सकता है।
अगर यही रुझान जारी रहा, तो यह न केवल ग्रामीण लोकतंत्र को खोखला करेगा, बल्कि आपदा-प्रवण इस राज्य की मानवीय और सामाजिक पूंजी को भी अपूरणीय क्षति पहुँचा देगा।
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