सपनों के लुटेरे
वो कहते हैं, "सपने देखो, मगर हमारी तरह,
जो हम दिखाएं, बस उसी की करो पहरेदारी।"
पर बचपन तो उड़ान भरना चाहता है,
उनके बनाए पिंजरे में क्यूँ हो कैद हमारी चिंगारी?
कभी किताबों से, कभी स्याही से डराते हैं,
नए ख्वाबों को कच्ची मिट्टी बताकर बहलाते हैं।
जो कल के सूरज हैं, उन्हें बुझाने की साजिश,
सपनों की हत्या पर बजती है तालीश।
कहते हैं, "संभल के चलो, नियमों में बंधो,
अपने हिस्से का आसमान मत खोजो!"
पर कौन रोकेगा इन नई हवाओं को?
ये जलते हुए दिल, ये बगावत की आग को?
हम सपनों को बचाएँगे, उन्हें खुला छोड़ेंगे,
हर दीवार गिराएँगे, नई राह जोड़ेंगे।
लूटने दो जो लूटते हैं अरमानों की बस्ती,
हम नया सूरज उगाएँगे, मिटाएँगे ये मस्ती!
@ udaen
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