दो बेटे एक कविता के रूप में।
दो बेटे
(1) नालायक बेटा – रिश्वतखोर अफसर
सरकारी कुर्सी पाई थी, पर सेवा को ना जाना,
रिश्वत बिना फाइल न बढ़े, बस धन को ही पहचाना।
जनता दर-दर भटके लेकिन, काम न करता कोई,
ऊपर से नीचे तक फैली, घूस की काली रोई।
तनख्वाह मिली थी सेवा को, पर जेबें फिर भी खाली,
लोगों की मेहनत की रोटी, निगले ये अकड़ मतवाली।
हुक्मरानों से साँठ-गाँठ, धन का अंबार लगाया,
पर जनता की बद्दुआओं से, चैन कहीं न पाया।
(2) लायक बेटा – मेहनती किसान
छोटा बेटा श्रम का पुजारी, खेतों में लहराए,
अपने पसीने की बूँदों से, सोना रोज उगाए।
मेहनत से जो कमाए रोटी, उसमें रस भी आता,
ईमानदारी की हर दौलत, शान से सर ऊँचा उठाता।
खेतों से मंडी तक पहुँचा, अपने दम पर नाम कमाया,
सरकार को कर भी चुकाया, देश की अर्थव्यवस्था बढ़ाया।
अपने गाँव की सेवा की, औरों को भी काम दिया,
रिश्वत नहीं, हक़ की रोटी, उसने अपना मान लिया।
(3) पिता की सीख
पिता ने जब दोनों को देखा, न्याय किया निराला,
"जो परिश्रम से कमाए, वही असली उजाला।"
"रिश्वत की दौलत मिट जाती, मेहनत की चमक रहती,
धन-सम्मान वही टिकता है, जो सच की राह पर बहती।"
छोटे बेटे को सौंपा घर, श्रम का मोल बताया,
बड़े को चेताया उसने, "अब भी वक्त है आया!"
"जो किया सो किया मगर, अब तो जागो प्यारे,
वरना घूस की इस दलदल में, डूब जाओगे सारे!"
(4) शिक्षा
"मेहनत का फल मीठा होता, रिश्वत से सब रूठे,
जो सेवा में ईमानदारी, वही सुख-शांति लूटे।"
"धन वही जो श्रम से आए, वरना सब व्यर्थ जाता,
नालायक से लायक बनकर, इंसान अमर हो जाता!"
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