**"समाज में हरामियों की औकात होती है, जात नहीं"** पर आधारित एक सामाजिक चेतना और विद्रोह की भावना से भरी **कविता**:
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### **औक़ात की जात**
जात पूछते हो?
चलो पहले इंसानियत का चेहरा ढूंढो,
जिसने औरत को बेचा,
जिसने गरीब का खून चूसा,
वो किस जात का था?
जो मंदिर-मस्जिद की आड़ में
दंगा भड़काता है,
जो कुर्सी के लिए
क़ौम को बाँट जाता है —
उसे भी किसी ने
ऊँची जात वाला बताया था!
**हरामियों की औकात होती है,
जात नहीं**,
फिर भी समाज में
बदनाम वो होता है
जो चुपचाप मेहनत करता है
और जाति में छोटा कहलाता है।
नाम बड़े, पर काम सड़े,
फिर भी सर ऊँचा लिए घूमते हैं,
और जो दिल से बड़ा है,
वो आज भी झुका खड़ा है।
कर्म की पहचान मिटा दी गई,
खून की भाषा जात से जोड़ी गई,
मगर इतिहास गवाही देता है —
**हर बड़ा इंकलाब
नीच कहे गए इंसान ने ही किया है।**
अब वक्त है,
शब्दों की दीवारें तोड़ो,
जात नहीं,
चरित्र का तराजू जोड़ो।
हरामियों को
जात का तमगा मत दो,
वरना वो तुम्हारे बच्चों को
औक़ात सिखाते फिरेंगे!
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