लेख शीर्षक:"जब बाहरी संतरे पहाड़ी नारंगियों से टकराने लगे: उत्तराखंड में सांस्कृतिक और आर्थिक विस्थापन की त्रासदी"



प्रस्तावना:
उत्तराखंड के शांत, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध और प्रकृति-प्रेमी पहाड़ आज दोहरे संकट से गुजर रहे हैं — एक ओर विकास के नाम पर हो रहे अंधाधुंध शहरीकरण और बाहरी प्रभाव, और दूसरी ओर अपने मूल निवासियों की अनदेखी। यह लेख इस बात की पड़ताल करता है कि जब “बाहरी संतरे” (बाहरी संस्कृति, पूंजी, राजनीति और व्यापारिक ताकतें) पहाड़ी “नारंगियों” (स्थानीय लोगों, संसाधनों और संस्कृति) से टकराने लगती हैं, तो इसका सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ताना-बाना कैसे बिखरता है।


1. उत्तराखंड में देसी दखल का बढ़ता दबाव:
आज उत्तराखंड के हर क्षेत्र — शिक्षा, राजनीति, स्वास्थ्य, कृषि, पर्यटन, मीडिया, यहां तक कि धर्म और आध्यात्म — में बाहरी शक्तियों का गहरा दखल है। स्थानीय लोगों को सिर्फ ‘फोकल प्वाइंट’ की तरह दिखावे में रखा जाता है, जबकि निर्णय और संसाधनों पर नियंत्रण बाहरी लोगों का होता है।

  • पर्यटन और जमीनें: स्थानीय पहाड़ी युवाओं के पास संसाधनों की कमी और रोजगार का अभाव है, वहीं बाहर से आए लोग पर्यटन व्यवसाय, होमस्टे, कैफे और रिसॉर्ट के नाम पर हजारों एकड़ जमीन खरीद रहे हैं।
  • राजनीति और प्रशासन: स्थानीय जनप्रतिनिधियों की जगह बाहरी नेताओं को खड़ा किया जाता है जो जनभावनाओं को समझने में असफल रहते हैं।

2. सांस्कृतिक विस्थापन का दर्द:
पहाड़ की संस्कृति — बोली, लोकगीत, तीज-त्यौहार, पारंपरिक खानपान — धीरे-धीरे "मार्केटेबल प्रोडक्ट" बनकर रह गई है। संस्कृति को जीवंत रखने वाले गांव के बुजुर्ग, महिलाएं और लोककलाकार अब सिर्फ फोटोशूट का हिस्सा बन रहे हैं।

  • भाषा और लोकसंस्कृति का ह्रास: गढ़वाली और कुमाऊंनी जैसी भाषाएं अगली पीढ़ी के लिए 'बेकार' मानी जाने लगी हैं।
  • बाहरी संस्कृति का प्रभाव: पंजाबी, हरियाणवी और बॉलीवुड संस्कृति का इतना असर है कि स्थानीय युवाओं की सोच और रुचियां ही बदल गई हैं।

3. आर्थिक दोहन और मूल निवासियों की उपेक्षा:
उत्तराखंड में संसाधनों का दोहन हो रहा है — नदियां, जंगल, भूमि — सब बाहरी कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर में हैं। वहीं स्थानीय लोगों को रोज़गार के लिए पलायन करना पड़ता है।

  • स्थानीय उत्पादों की उपेक्षा: मंडवा, झंगोरा, पहाड़ी नारंगी जैसे उत्पादों को प्रमोट करने की बजाय बाहर से आए प्रोडक्ट्स को बढ़ावा दिया जा रहा है।
  • ग्रामीण अर्थव्यवस्था की अनदेखी: आत्मनिर्भरता की बात करने वाले सरकारी कार्यक्रम भी ज़मीन पर सिर्फ "रिपोर्टिंग" तक सीमित हैं।

4. भविष्य की आशंका: आने वाला पहाड़ कैसा होगा?
यदि यही रफ्तार रही, तो पहाड़ केवल एक "टूरिज्म डेस्टिनेशन" बनकर रह जाएगा। गांवों में लोग नहीं, केवल होटल होंगे; खेतों में फसल नहीं, रिजॉर्ट होंगे; और मंदिरों में पूजा नहीं, प्रमोशनल फोटोशूट होंगे।


5. समाधान की दिशा में कुछ सुझाव:

  • स्थानीय लोगों को प्राथमिकता: हर नीति और योजना में पहाड़ी लोगों को पहले स्थान पर रखा जाए।
  • भाषा और संस्कृति की पुनर्स्थापना: स्कूलों में गढ़वाली/कुमाऊंनी पढ़ाई जाए, सांस्कृतिक उत्सव स्थानीय स्तर पर आयोजित किए जाएं।
  • स्थानीय व्यवसाय को बढ़ावा: जैविक खेती, पारंपरिक उत्पाद, और ग्रामीण पर्यटन के मॉडल स्थानीय लोगों की भागीदारी से विकसित किए जाएं।
  • कानूनी सुरक्षा: भूमि और संसाधनों की रक्षा के लिए कड़े स्थानीय कानून बनाए जाएं।

निष्कर्ष:
जब बाहरी संतरे, पहाड़ी नारंगियों से टकराने लगते हैं तो केवल रस नहीं, जड़ें भी निचोड़ ली जाती हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों का भविष्य तभी सुरक्षित हो सकता है जब उनकी आत्मा — यानी उनके लोग, उनकी भाषा, उनकी ज़मीन और उनकी संस्कृति — जीवित रह सके। वरना ये देवभूमि, केवल एक ‘इंस्टाग्रामेबल लोकेशन’ बनकर रह जाएगी।



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