उत्तराखंड में 2026 के परिसीमन (सीमांकन) की पृष्ठभूमि और प्रभाव


उत्तराखंड में वर्ष 2026 में प्रस्तावित परिसीमन (सीमांकन) को लेकर विभिन्न राजनीतिक और सामाजिक संगठनों के बीच बहस छिड़ गई है। परिसीमन की यह प्रक्रिया विधानसभा और लोकसभा क्षेत्रों की सीमाओं के पुनर्निर्धारण से संबंधित है, जो जनसंख्या के नए आंकड़ों के आधार पर की जाती है।

परिसीमन (Delimitation) क्या होता है?

परिसीमन वह प्रक्रिया है जिसमें निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएँ नवीनतम जनसंख्या के अनुसार पुनः निर्धारित की जाती हैं। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक मतदाता का समान प्रतिनिधित्व हो और सीटों का वितरण न्यायसंगत हो। परिसीमन आमतौर पर जनसंख्या वृद्धि, क्षेत्रीय संतुलन, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, और प्रशासनिक जरूरतों के आधार पर किया जाता है।

भारत में आखिरी बार परिसीमन 2008 में हुआ था, और अगला परिसीमन 2026 में प्रस्तावित है। इस परिसीमन में उत्तराखंड सहित पूरे भारत में लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों की सीमाएँ नए सिरे से तय की जाएंगी।


उत्तराखंड में परिसीमन का संभावित प्रभाव

उत्तराखंड में परिसीमन एक महत्वपूर्ण मुद्दा इसलिए है क्योंकि यह पहाड़ी और मैदानी इलाकों के राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है।

1. पहाड़ी बनाम मैदानी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व

उत्तराखंड में 13 जिले और 70 विधानसभा सीटें हैं। इनमें से कुछ जिले पहाड़ी क्षेत्रों में आते हैं, जबकि हरिद्वार, देहरादून, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल जैसे जिले मैदानी क्षेत्रों में आते हैं।

  • पिछले कुछ दशकों में मैदानी जिलों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी है, जबकि पहाड़ी जिलों से लगातार पलायन हो रहा है।
  • अगर परिसीमन केवल जनसंख्या के आधार पर किया जाता है, तो मैदानी जिलों की विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ सकती है, जबकि पहाड़ी जिलों की सीटें घट सकती हैं।
  • इससे पहाड़ी क्षेत्रों का राजनीतिक प्रभाव कमजोर हो सकता है, जिससे वहां के विकास कार्य प्रभावित हो सकते हैं।

2. राजनीतिक दलों की चिंताएँ

  • उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) और पहाड़ी एकता मोर्चा जैसे संगठन परिसीमन प्रक्रिया पर सवाल उठा रहे हैं।
  • उनका कहना है कि अगर सिर्फ जनसंख्या के आधार पर परिसीमन हुआ, तो पहाड़ी जिलों का प्रतिनिधित्व कम हो जाएगा और राज्य में राजनीतिक असंतुलन आ जाएगा।
  • यूकेडी ने इसे लेकर जनमत संग्रह और हस्ताक्षर अभियान शुरू करने की घोषणा की है, ताकि सरकार तक इस मुद्दे को प्रभावी तरीके से पहुंचाया जा सके।

3. पलायन और परिसीमन की चुनौती

  • उत्तराखंड के कई पहाड़ी जिलों से भारी पलायन हो रहा है। लोग रोजगार, शिक्षा, और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में मैदानी क्षेत्रों की ओर जा रहे हैं।
  • अगर परिसीमन में केवल जनसंख्या को आधार बनाया गया, तो पहाड़ी जिलों की सीटें कम हो जाएंगी, जिससे वहां के विकास को और अधिक नुकसान हो सकता है।
  • पहाड़ी संगठनों का कहना है कि परिसीमन करते समय जनसंख्या के साथ-साथ भौगोलिक परिस्थितियों, पलायन, और क्षेत्रफल जैसे कारकों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

संभावित समाधान और मांगें

  1. परिसीमन में संतुलन:

    • सिर्फ जनसंख्या के आधार पर परिसीमन न किया जाए, बल्कि भौगोलिक क्षेत्र, विकास का स्तर, पलायन, और ऐतिहासिक महत्व को भी ध्यान में रखा जाए।
    • हिमाचल प्रदेश की तरह विशेष परिसीमन नीति अपनाई जाए, जिससे पहाड़ी क्षेत्रों को न्यायसंगत प्रतिनिधित्व मिल सके।
  2. राजनीतिक दबाव:

    • पहाड़ी दलों और सामाजिक संगठनों को मिलकर सरकार पर दबाव बनाना होगा ताकि परिसीमन का आधार व्यापक हो।
    • लोगों को जागरूक कर जनसुनवाई और हस्ताक्षर अभियान चलाने होंगे।
  3. आर्थिक और सामाजिक विकास पर ध्यान:

    • सरकार को यह भी देखना होगा कि परिसीमन से किन क्षेत्रों में विकास कार्य प्रभावित होंगे।
    • पहाड़ी जिलों के लिए विशेष योजनाएँ लागू की जाएँ ताकि वहाँ की जनसंख्या स्थिर रहे और पलायन न हो।

निष्कर्ष

उत्तराखंड में 2026 के परिसीमन को लेकर विवाद और चिंताएँ जायज हैं। अगर परिसीमन में केवल जनसंख्या को आधार बनाया गया, तो पहाड़ी क्षेत्रों का राजनीतिक महत्व कम हो सकता है और वहाँ के विकास कार्यों को नुकसान पहुंच सकता है। सरकार को इस मामले में संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि पहाड़ी जिलों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व बना रहे।

इस मुद्दे पर जनता, सामाजिक संगठनों, और राजनीतिक दलों को मिलकर एक रणनीति बनानी होगी ताकि उत्तराखंड के हर क्षेत्र का संतुलित और न्यायसंगत विकास हो सके।

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